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संन्यास क्या है?

बहुत सुन्दर शब्द है, यह संन्यास । आजकल इस शब्द का अर्थ हम घर, धन इत्यादि का त्याग ही सन्यास समझते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय के दूसरे श्लोक में श्री कृष्ण जी संन्यास के बारे में अर्जुन से कहते हैं-  " काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं " अर्थात् भौतिक इच्छा पर आधारित कर्मों के परित्याग को संन्यास कहा जाता है । यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यमिति - यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए ।  संन्यास लेने का कब फायदा है?                    संन्यास लेने का तब फायदा है, जब आपकी पूर्व जन्म की स्मृति आपको आ जाए । क्यूंकि बिना स्मृति के , बिना ज्ञान के, बिना अनुभव के संन्यास लेने का कोई फायदा नहीं, बिना शास्त्र ज्ञान के, बिना वेद ज्ञान के प्रकाश के इस पथ पर चलना कठिन है । किसको पूर्व जन्म की स्मृतियाँ मिलि ?                      व्यास पुत्र शुकदेव जी,                                        गङ्गा पुत्र भीष्म जी,                                        जड़ भरत जी, काक भुशुण्डी जी इत्यादि । निष्कर्ष -  संन्यास लेने का तब फायदा है, जब आपकी पूर्व जन्म की स्मृ

राम जी ने सीता त्याग किया ही _ *नहीं* ,,, I have proof

  राम जी ने सीता त्याग किया ही _ *नहीं* ,,,  I have proof अगर त्याग हुआ होता तो, महाभारत के रामोपाख्यान में  इसका स्पष्ट उल्लेख होता, जो कि है ही नहीं । यह किसी धर्म विरोधी ने वाल्मीकि रामायण में त्याग वाला अंश जोड़ा है।  बस उससे यह गलती हो गयी कि महाभारत में जोड़ न सका। इसी कारण वह धूर्त पकड़ा गया ।  *"यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।"*  इस formulae से भी स्पष्ट है। Lord Rama didn't Sacrifice Seeta ji, Here's the proof.  Had there been renunciation, it would have been clearly mentioned in the Ramopakhayan of Mahabharata, which is not there. This anti-religionist has added a renunciation part in Valmiki Ramayana. It was just the mistake that he could not add to the Mahabharata. That's why the sly person was caught.   *"यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् "* This is also clear from the formulas.

शक्ति कहाँ पर है? / Where is the real power?

  शक्ति अगर शरीर में होती तो ; शेर जंगल का नहीं दुनिया का राजा होता। शक्ति अगर पैसों में होती तो सिकंदर अपने पैसों से अपनी मृत्यु को खरीद लेता। शक्ति है कहाँ? शक्ति सिर्फ और सिर्फ * मन * की होती है, जिसको हम Mind power(बौद्धिक शक्ति ) ya Soul Power(आत्मा की शक्ति) के रूप में जानते हैं । * तन्मे मनः शिवसंकल्पम् अस्तु । * (यजुर्वेद)

मित्रः प्रमीतेस्रायते।

• मित्रः प्रमीतेस्रायते ।    ( निरुक्त: यास्क ) -मित्र मृत्यु से बचाता है। मित्र = वायु, प्रमीति : = प्रमरणम् ततः । (जो मृत्यु से ) त्रायते = बचावे । • मित्र अर्थात वायु कैसे रक्षा करती है या बचाती है ? - इसका उत्तर भी उसी ग्रन्थ में हमें मिलता है, क्योंकि उसी वायु ने पृथ्वी और द्युलोक को धारण किया हुआ है। तभी तो यह पृथ्वी , सूर्य की परिक्रमा करते हुए कहीं गिरती या भटकती नहीं है । - प्राणवायु रूप से हमारा शरीर जीवित रखती है, अतः मित्र है।

Universe Creation Hymns of Rigveda

From सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्। किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥ अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्। अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे। न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः। अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥ अन्वय-तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किंचन न आस न परः। ‘अर्थ – उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण

गीता के उपदेश अमृत

 महाभारत के युद्ध में अर्जुन के विषण्ण ह्रदय को देखकर उसके कर्तव्यबोध के लिए भगवान् कृष्ण द्वारा जो उपदेश दिया गया , वह ही "श्रीमद्भगवद्गीता" इस नाम से प्रसिद्ध है।  गीता में भगवान् कृष्ण द्वारा प्रायः सभी मनुष्यों के आवश्यक कर्त्तव्य का प्रतिपादन है।   गीता में जो उपदेश हैं , उनमें से मुख्य यह हैं - -यह आत्मा अजर (बुढ़ापा से रहित ), अमर (मृत्युरहित) है। न हि उत्पन्न होता है , और न हि मरता है। किसी भी प्रकार से इसका नाश नहीं होता।   -जैसे पुराने वस्त्र को उतारकर नए वस्त्र धारण किये जाते हैं ,वैसे ही शरीर को भी समझना चाहिए।            वासांसि जीर्णानि यथा विहाय          नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।           तथा शरीराणि विहाय जीर्णा           न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22। -मनुष्य अपने कर्म अनुसार ही पुनर्जन्म पाता है।              जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।             तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.27।। -मनुष्यों द्वारा सदा निष्काम भावना से कर्म करा जाना चाहिए। अपने धर्म (शुभ कर्म ) को कभी त्यागना नहीं चाहिए।                कर्मण्येवाधिकारस्त